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प꣢रि꣣ वि꣡श्वा꣢नि꣣ चे꣡त꣢सा मृ꣣ज्य꣢से꣣ प꣡व꣢से म꣣ती꣡ । स꣡ नः꣢ सोम꣣ श्र꣡वो꣢ विदः ॥९७०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि विश्वानि चेतसा मृज्यसे पवसे मती । स नः सोम श्रवो विदः ॥९७०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯नि । चे꣡त꣢꣯सा । मृ꣣ज्य꣡से꣢ । प꣡व꣢꣯से । म꣣ती꣢ । सः । नः꣣ । सोम । श्र꣡वः꣢꣯ । वि꣣दः ॥९७०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 970 | (कौथोम) 3 » 2 » 4 » 3 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे परमात्मन् ! (विश्वानि) सब सांसारिक भोगविलास आदि को (परि) छोड़कर, आप ही हमारे द्वारा(चेतसा) चित्त से और (मती) मति से (मृज्यसे)अलंकृत किये जा रहे हो, क्योंकि आप हमें (पवसे) पवित्र करते हो। हे (सोम) परमैश्वर्यशालिन् ! (सः) वह आप (नः) हमें (श्रवः) यश (विदः) प्राप्त कराओ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जब मनुष्य बाह्य विषयों से मन को हटाकर और परमात्मा में ही केन्द्रित करके परमात्मा का ध्यान करता है, तब वह उसे अत्यधिक पवित्रता और अविनश्वर यश प्रदान करता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे परमात्मन् ! (विश्वानि) सर्वाणि सांसारिकभोगविलासादीनि (परि) परिहृत्य त्वमेव (चेतसा) चित्तेन (मती) मत्या च। [अत्र ‘सुपां सुलुक्०’। अ० ७।१।३९ इत्यनेन तृतीयैकवचने पूर्वसवर्णदीर्घः।] (मृज्यसे) अलङ्क्रियसे, यतः त्वम् (नः) अस्मान् (पवसे) पुनासि। हे (सोम) परमैश्वर्यवन् ! (सः) असौ त्वम् (नः) अस्मान् (श्रवः) यशः (विदः) लम्भय ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यदा मनुष्यो बाह्यविषयेभ्यो मनः प्रतिनिवर्त्य परमात्मन्येव च केन्द्रीकृत्य तं ध्यायति तदा स तस्मै नितान्तं पावित्र्यमविनश्वरं यशश्च प्रयच्छति ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।२०।३ ‘मृज्यसे’ इत्यत्र ‘मृ॒शसे॒’।